बुधवार, 5 अगस्त 2009

यही असली गरीबी है

आपने कभी फुटपाथ या चौराहे पर उसे हाथ फैलाये देखा है? लोगों को दौड़ाते या गाड़ियों के पीछे भागते हुए देखा है? जरूर देखा होगा और निरंतर देखते रहे होंगे। आप उसे जो कुछ भी मानते हों लेकिन मेरी निगाह में वो दुनिया का सबसे गरीब तबका है जिसे 'पुलिस कांस्टेबल' कहते हैं।

ये वो क़ौम है जिसे शायद सरकार पूरे पैसे नहीं देती। यही वजह है की इसे अपनी ड्यूटी के दौरान ट्रक,ऑटो,ठेला-रिक्शा,फेरी वालों और कभी कभी आम आदमी के सामने हाथ फैलाना पड़ता है। अपने और परिजनों के प्रति फर्ज़ को पूरा करने के लिए यह किसी को 'बिना दिए' जाने ही नहीं देती अगर कोई जियाला बिन दिए जाने का प्रयास करता भी है तो यह उसका पीछा तब तक नहीं छोड़ती जब तक 'कुछ' हासिल नहीं हो जाता।

इसकी गरीबी का आलम ये है कि इसके पास अपने कपडे नहीं होते। वो तो कहिये सरकार ने इज्जत बचाने के लिए वर्दी मुहैया कराई है वरना इसका हाल क्या होता, सिर्फ़ अंदाजा लगाया जा सकता है। ड्यूटी हो या ड्यूटी ऑफ़, सिनेमा, चायखाना, रेल, बस, घर - हर जगह इसे अपनी इज्जत का सहारा वर्दी से ही है।

इस क़ौम के कुछ भेदियों ने ही नाम न बताने की शर्त पर ये सूचना दी कि केवल एक जगह ऐसी है जहाँ वर्दी नहीं होती और वो जगह है-ससुराल। कारण पूछने पर बताया वर्दी तो अकड, शान और धौंस की पहचान है। लेकिन ससुराल पर किस का बस चला है? लिहाज़ा वहां अपनी औकात में ही रहना पड़ता है।

देश/प्रदेश की सुरक्षा का भार अपने कंधों पर उठाने वाली यह क़ौम गरीबी - भुखमरी की इस तरह शिकार है कि पेट का ईंधन जुटाने के लिए इसे फुटपाथ पर बैठे दूकानदारों और ठेले - खोमचे वालों से मांग कर खाना पड़ता है। पैसे होते नहीं कि किसी फाइव नहीं तो बिना स्टार के ही होटल या ढाबे की शरण ले सके।

रेल, बस, ऑटो, रिक्शा वाले सभी इसकी आर्थिक स्थिति से वाकिफ है, यही वजह है कि इससे पैसों का सवाल कोई करता ही नहीं। सरकारें सिर्फ़ एलान करती हैं कि पुलिस कांस्टेबल के लिए ये किया जा रहा है, वो किया जा रहा है लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा सिर्फ़ कहा जाता है। अगर ऐसा किया जाता तो यह क़ौम अपना पैसे वाला रुतबा दिखाती नहीं? भला गर्भ और पैसा कहीं छिपता है ?

जब तक पुलिस की आर्थिक दुर्दशा का ये सच मुझे ज्ञात नहीं था, मैं भी आम बेवकूफ लोगों की तरह पुलिस को गालियाँ देते नहीं थकता था। परन्तु जब से मेरे ज्ञान चक्षु खुले हैं मैं निरंतर ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि भगवान! जैसे सब के दिन फेरे, इनके भी फेर। आप भी प्रार्थना करें। शायद ऐसा हो जाए। माना १२ बरस में कुत्ते की दुम सीधी नहीं होती लेकिन १२ बरसों में घूरे के दिन तो फिर जाते हैं !!

4 टिप्‍पणियां:

  1. देश/प्रदेश की सुरक्षा का भार अपने कंधों पर उठाने वाली यह क़ौम गरीबी - भुखमरी की इस तरह शिकार है कि पेट का ईंधन जुटाने के लिए इसे फुटपाथ पर बैठे दूकानदारों और ठेले - खोमचे वालों से मांग कर खाना पड़ता है.....

    सच्चाई ब्यान करता आलेख .....!!

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  2. भाई आपने बहुत सही कार्य किया है पुलिस की मुसीबतों पहचान कर उसे शब्द देकर वाकई पूरे हिनुस्तान में पुलिसवालों से ज्यादा परेशान कोई सरकारी कर्मचारी नहीं है.

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  3. चटखारे लेकर पढ़ी आपकी रचना। बधाई स्‍वीकारें। आपकी इसलाह पर विचार कर रहा हूं, शायद सही इसलाह किया है आपने। धन्‍यवाद।

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मुझ अकेले को ' हैरान परेशान ' रहने दें. आप कमेन्ट देकर हलके हो जाएँ.