सोमवार, 31 अगस्त 2009

हमारे देश में

भगवान जाने बुढापे में, लौह पुरूष बने, माननीय आडवाणी जी को किसकी नजर लग गयी। अच्छी खासे प्रधान मंत्री बनने जा रहे थे मगर बुरा हो मनहूसों का जिन्होंने जाने कौन कौन से जादू टोने, तन्त्र=मन्त्र चलाकर उनके सपनों का कनेक्शन मुंगेरी लाल से जोड़ दिया। जालिमों ने यह भी नहीं सोचा कि फांसी पाने वाले अपराधी की भी अन्तिम इच्छा पूरी कर दी जाती है तो फिर आडवानी जी कोई अपराधी साबित भी तो नहीं हो पाए थे।
इस देश में प्रधान मंत्री के रूप में चौधरी चरण सिंह, नरसिम्हा राव, हरदनहल्ली देवेगौडा और कितने ही चेहरे आसीन हो चुके हैं। आडवानी जी तो माशा अल्लाह खूबसूरत लोगों में शुमार किए जाते होंगे। फिर, उन्हें ऐसा करने या होने से रोका क्यों गया। विद्वानों का इस बाबत अलग अलग मत है। कुछ कहते हैं कि भाजपा की अंदरूनी कलह से ऐसा हुआ। कुछ का कथन है कि बाजपेयी जी के मुकाबले आडवानी जी कमजोर थे। कुछ इसे भाजपा की पिछली हुकूमत का फल बताते हैं। बाकी एक स्वर में कहते हैं कि जनता का रुधिर परिवर्तन हो गया था और वह कांग्रेस के कनेक्शन में आ गयी। लेकिन सच तो ये है कि आडवानी जी बुरी नजर वाले तेरा मुंह कला के इंद्रजाल का शिकार हुए।
अब देखिये कितने पहले से साजिश रची गयी। बेचारे पाकिस्तान गये थे। कोई विदेशी नेता भारत आए तो क्या गांधी जी को गाली देकर निकल सकता है? आडवाणी जी ने भी वही किया और जिन्ना की थोड़ी सी तारीफ कर दी। राजनीति में यह सब करना पड़ता है। लेकिन आडवाणी जी के तो बिना सर मुंडाए ओले पड़ गये। ऐसी लानत=मलामत कि पूछिए मत। जिन्हें उंगली पकड़ कर चलना सिखाया था वही लाठी डंडे लेकर खड़े हो गये। सब यही चाह रहे थे कि बुड्ढा घर छोड़ कर वृद्ध आश्रम थाम ले। भाई, उन्होंने तो नेक काम किया था। एक मरे हुए व्यक्ति की प्रशंसा की थी, गालियाँ तो दी नहीं थीं। लेकिन पूरा कुनबा और दाल भात में मूसलचंद बनके संघ वाले भी आ गये। लगा जैसे आडवाणी जी ने जिन्ना की तारीफ न करके संघ को गरियाया हो।
खैर किसी किसी तरह यह मामला निपटा। लोकसभा चुनाव आए तो झुर्रियां चढे चेहरे को पी एम् बनने की आस जागी। इस विषय पर भी कई लोग उनकी जगह मोदी को प्लांट करने लगे। लेकिन जिन्ना कीरूह का खुदा भला करे कि जिसकी दुआओं ने ऐसा कुछ भी होने से रोक लिया। फिर भी चुनावों में जिन्ना की दुआओं का तोड़ खोज ही लिया बुरी नजर वालों ने।
चुनाव हारी तो पार्टी, लेकिन मटका फोड़ा जाने लगा बेचारे , निरीह आडवाणी जी के सर। आडवाणी से ही प्रेरणा लेकर जसवंत सिंह भी जिन्ना प्रशस्ति की राह चले और चलते चलते पार्टी से बाहर हो गये। सुदर्शन जी लकी थे जो जिन्ना-गान के बाद भी सवाल-जवाब से बचे रहे।
अब पार्टी में दो गुट हैं। एक चाहता है लौह पुरूष जायें। दूसरा कमजोर है इस लिए चिल्ला रहा है लौह पुरूष का होना ज़रूरी है। संघ ने भी फार्मूला यही बताया है कि ऐसे ऐसे लौह को गला कर नया औजार बनाओ। लौह पुरूष के साथ बहुत से तांबा, पीतल,अल्युमिनियम तथा प्लास्टिक पुरूष जलाये जाने की भी योजना है। आप की हमदर्दी किस किस के साथ है। अपने जवाब शीघ्र भेजें। यदि आपका जवाब हमारे हल से मिल गया तो आपको आडवाणी जी की एक प्लास्टिक की प्रतिमा भेजी जायेगी। डाक व्यय तथा अन्य खर्च की जिम्मेदारी इनाम पाने वाले को वहन करनी होगी। एक अशुद्धि वाले हल को एक वर्ष के लिए किसी राजनीतिक पार्टी (उसकी पसंद वाली) की सदस्यता दी जायेगी। बुरी नजर वाले १० चेहरों के सही नाम बताने वाले को साबरमती एक्सप्रेस से गोधरा तक की मुफ्त यात्रा। आपका क्या ख्याल है?

बुधवार, 5 अगस्त 2009

यही असली गरीबी है

आपने कभी फुटपाथ या चौराहे पर उसे हाथ फैलाये देखा है? लोगों को दौड़ाते या गाड़ियों के पीछे भागते हुए देखा है? जरूर देखा होगा और निरंतर देखते रहे होंगे। आप उसे जो कुछ भी मानते हों लेकिन मेरी निगाह में वो दुनिया का सबसे गरीब तबका है जिसे 'पुलिस कांस्टेबल' कहते हैं।

ये वो क़ौम है जिसे शायद सरकार पूरे पैसे नहीं देती। यही वजह है की इसे अपनी ड्यूटी के दौरान ट्रक,ऑटो,ठेला-रिक्शा,फेरी वालों और कभी कभी आम आदमी के सामने हाथ फैलाना पड़ता है। अपने और परिजनों के प्रति फर्ज़ को पूरा करने के लिए यह किसी को 'बिना दिए' जाने ही नहीं देती अगर कोई जियाला बिन दिए जाने का प्रयास करता भी है तो यह उसका पीछा तब तक नहीं छोड़ती जब तक 'कुछ' हासिल नहीं हो जाता।

इसकी गरीबी का आलम ये है कि इसके पास अपने कपडे नहीं होते। वो तो कहिये सरकार ने इज्जत बचाने के लिए वर्दी मुहैया कराई है वरना इसका हाल क्या होता, सिर्फ़ अंदाजा लगाया जा सकता है। ड्यूटी हो या ड्यूटी ऑफ़, सिनेमा, चायखाना, रेल, बस, घर - हर जगह इसे अपनी इज्जत का सहारा वर्दी से ही है।

इस क़ौम के कुछ भेदियों ने ही नाम न बताने की शर्त पर ये सूचना दी कि केवल एक जगह ऐसी है जहाँ वर्दी नहीं होती और वो जगह है-ससुराल। कारण पूछने पर बताया वर्दी तो अकड, शान और धौंस की पहचान है। लेकिन ससुराल पर किस का बस चला है? लिहाज़ा वहां अपनी औकात में ही रहना पड़ता है।

देश/प्रदेश की सुरक्षा का भार अपने कंधों पर उठाने वाली यह क़ौम गरीबी - भुखमरी की इस तरह शिकार है कि पेट का ईंधन जुटाने के लिए इसे फुटपाथ पर बैठे दूकानदारों और ठेले - खोमचे वालों से मांग कर खाना पड़ता है। पैसे होते नहीं कि किसी फाइव नहीं तो बिना स्टार के ही होटल या ढाबे की शरण ले सके।

रेल, बस, ऑटो, रिक्शा वाले सभी इसकी आर्थिक स्थिति से वाकिफ है, यही वजह है कि इससे पैसों का सवाल कोई करता ही नहीं। सरकारें सिर्फ़ एलान करती हैं कि पुलिस कांस्टेबल के लिए ये किया जा रहा है, वो किया जा रहा है लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा सिर्फ़ कहा जाता है। अगर ऐसा किया जाता तो यह क़ौम अपना पैसे वाला रुतबा दिखाती नहीं? भला गर्भ और पैसा कहीं छिपता है ?

जब तक पुलिस की आर्थिक दुर्दशा का ये सच मुझे ज्ञात नहीं था, मैं भी आम बेवकूफ लोगों की तरह पुलिस को गालियाँ देते नहीं थकता था। परन्तु जब से मेरे ज्ञान चक्षु खुले हैं मैं निरंतर ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि भगवान! जैसे सब के दिन फेरे, इनके भी फेर। आप भी प्रार्थना करें। शायद ऐसा हो जाए। माना १२ बरस में कुत्ते की दुम सीधी नहीं होती लेकिन १२ बरसों में घूरे के दिन तो फिर जाते हैं !!